गुरु बालक दास जी
वीरबलिदानी राजा गुरु बालकदास जी परम पूज्य गुरु घासीदास बाबा और माता सफुरा के द्वितीय सुपुत्र थे।
वे बाल्यकाल से ही साहसी और नीतिनिपुण थे। पिता गुरु घासीदास के सतनाम उपदेशों और जनकल्याण कारी समाज सुधार के कार्यों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा था ।
सतनामी समाज के कवियों और रचनाकारों के अनुसार गुरु घासीदास को 34 वर्ष की आयु में सतनाम की प्राप्ति हुई थी। लेकिन समाजिक प्रबुद्ध जन एवं वरिष्ठ साहित्यकार सन् 1795 को सतनाम उपदेशना वर्ष को स्वीकृति देते हैं।
सेंट्रल प्रोविंस 1861-1922 के अनुसार गुरु घासीदास को सन् 1795 में सतनाम की प्राप्ति हुआ। राजमहंत नंकेशरदास टंडन के अनुसार गुरु घासीदास 1791 से 1795 तक समीपस्थ ग्राम में सतनाम का उपदेश करते रहे।
कुछ विद्वान के अनुसार
गुरु घासीदास ने सतनाम धर्म का उपदेश करते हुए छत्तीसगढ़ रावटी(1795) के दौरान सफुरा सहित अपने द्वितीय पुत्र बालकदास को साथ लेकर पुरे छत्तीसगढ़ का भ्रमण किए। जिसमें वे गिरौदपुरी से शिवरीनारायण, पामगढ़, अकलतरा, जांजगीर, बलौदा, सीपत, बिलासपुर, रतनपुर, दालहा,(पोड़ी), लोरमी पंडरिया, गंड ई, कवर्धा, डोंगरगढ़, लोहारा, मुंगेली, दशरंगपुर-, सारा गांव, भाटापारा, बलौदा बाजार, पलारी, कसडोल से पुनः गृह ग्राम के ओर सतनाम उपदेश करते हुए वापस लौट आए। गुरु घासीदास ने अन्याय , हिंसा, अत्याचार, जातिप्रथा, छुआछूत, अंधविश्वास, इत्यादि समाजिक कुरीतियों का विरोध किया। और सर्व जन को सतनाम का उपदेश करते हुए जागरुक और संगठित किया। इस दौरान उनकी ख्याति छत्तीसगढ़ में अधिक बढ़ गई थी। लोग गुरु घासीदास के प्रभाव से आकर सतनाम धर्म को स्वीकार कर रहे थे। जनश्रूति अनुसार सन् 1807 में गुरु घासीदास के खिलाफ गिरौदपुरी के मालगुजारों और सामंती व्यवस्था के चाकरों तथा पुरोहितों के द्वारा षड्यंत्र रचाया गया। ताकि गुरु घासीदास के ख्याति नष्ट हो जाये । जनमानस के मन में सतनाम धर्म व गुरु घासीदास के उपदेश के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हो जाए। जिसके कारण लोग गुरु घासीदास सहित उनके कार्यों को धर्म विरोधी समझे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गुरु घासीदास के प्रभाव से वे अपने षड्यंत्र में असफल रहे।
In the early years of the movement an effort was made to crush it's speed, (सेंट्रल प्रोविंस 1870 पृष्ठ 101)
लेकिन गुरु घासीदास को गिरौदपुरी छोड़कर जाना पड़ा।
इस प्रकार गुरु घासीदास दास सत्य और अहिंसा में दृढ़ निश्चय और विश्वास होने के कारण अपने जन्म भूमि गिरौदपुरी ग्राम और वहां के मकान और भुमि को छोड़कर अपने परिवार सहित तैलासी परिक्षेत्र में चले गए। (जहां गुरु घासीदास ने छिदींहा, बुगिहा, और डुमिहा, तलाब को सतनाम के प्रभाव से शुद्ध बनाया। मालिकराम गौंटिया उनके अत्यंत प्रशंसक हो गए थे। ऐसी भी जनश्रूति है कि गुरु घासीदास के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र कि प्राप्ति हुआ । इसलिए उन्हीं के माध्यम से गुरु घासीदास को भु-दान की परंपरा की शुरुआत हुई। वही भंडार में एक लोहारिन गौटनिन द्वारा भंडार को उन्हें दान स्वरूप भेंट करने कि जनश्रुति भी प्रचलित है।) इस प्रकार गुरु घासीदास ने अपने कर्म भुमि के रूप में सन् 1810 में भंडार को चुना । गुरु घासीदास ने समाजिक छुआ छूत और भेदभाव को समाप्त करने के लिए भंडारा प्रथा कि शुरुआत किया। जिसमें ऊंच- नीच , अमीर- गरीब , मालिक - रैय्यत सभी एक साथ भोजन ग्रहण करते थे।इस तरह गुरु घासीदास ने सतनाम पंथ को अत्यंत आधुनिक स्तर पर ले आए । जहां कबीर पंथ संगत तक सीमित था। जिसके कारण कबीर पंथ में जाति व्यवस्था बनी रहती थी। वे कबीरदास जी के मत को स्वीकारने के कारण कबीरहा कहलाते थे। लेकिन जाति वहीं लिखते, बताते और मानते थे , जो उन्हें जन्मगत प्राप्त था। गुरु घासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनाम को पंगत और अंगत दोनों रुप में प्रस्तुत किया। जो कोई गुरु घासीदास के सतनाम को अपनाते थे। वे सभी अपने पुर्व जन्म कर्म का त्याग करके सतनामी कहलाते थे। तथा उनके साथ समानता के साथ रोटी बेटी का संबंध रखा जाता था। गुरु घासीदास ने सतनामी समाज में समाजिक व्यवस्था के लिए भंडारी कि नियुक्ति किया। जो सतनामी समाज के नीति उपदेश और सामाजिक मुल्यो के कार्यवाहक होते थे। और उसके साथ छत्तीसगढ़ में रामत किया।
In the time of Ghasidas, he evidently toured the Chhutteesgurh area, with his disciples, called bhandaris, ( रसेल ट्राइब्स एंड कास्ट पृष्ठ 311) इस तरह जनश्रूति अनुसार भंडारा प्रथा के प्रचलन और भेंट से प्राप्त संपत्ति के कारण मालिक पुरी गांव का नाम भंडार पड़ गया ।
गुरु घासीदास ने भंडार पुरी से भटगांव, रायपुर, महासमुंद, राजिम, छुरियां, गरियाबंद, धमतरी, कुरुद, कांकेर, जगदलपुर, दंतेवाड़ा, नारायणपूर, मोहला ,चौकी, पाटन, दुर्ग, भिलाई, साजा, बेमेतरा, थानखमहरिया, सिमगा, आरंग, रायपुर, बाराडेरा, खरोरा कुकदा,संडी,छेरकापुर, तैलासी होते हुए भंडार आये। इस क्रम में उन्होंने अपने सात उपदेश सहित बयालीस वाणी तथा चौतिस शब्द का ज्ञान उपदेश दिया। यद्यपि कुछ विज्ञानवादी लोग गुरु घासीदास के चमत्कार और उपदेश - वाणी को नहीं मानते हैं। तथापि यह भी सत्य है कि बिना उपदेश संदेश व कर्म के कोई व्यक्ति किसी को प्रभावित नहीं कर सकता।
जबकि सेंट्रल प्रोविंस गजेटियर ( 1867-पृ100,)(1870-पृ117,) बिलासपुर (1868-पृ47 )में गुरु घासीदास के पास दिव्य शक्ति थी ऐसा लिखा है। रायपुर 1909 पृष्ठ 81-82 तथा ट्राइब्स एंड कास्ट पृष्ठ 310 में उल्लेख भी है। सेंट्रल प्रोविंस 1861-1922 में गुरु घासीदास के पास दिव्य उपचारात्मक शक्ति थी, ऐसा लिखा है। तात्कालिक समय में छत्तीसगढ़ के लोगों ने अवश्य ही गुरु घासीदास के कर्म और उपदेश को जांच परख कर ही माना होगा और उन्हें गुरु स्वीकार किया होगा। जिसके कारण से सतनाम धर्म को अपनाये होंगे। लोगों में इतनी बुद्धि तो अवश्य रही होगी ,कि:- वे सत्य- असत्य को जांच परख सके! लोगों ने आंख मुंद कर गुरु घासीदास का विश्वास नहीं किये होंगे, ऐसा हमारा तर्क कहता है।
राजा गुरु बालकदास जी उनके इन सभी रामतो में उनके साथ रहे। फलस्वरूप उन्हें छत्तीसगढ़ के सामाजिक स्थिति और जनसामान्य के समस्या का ज्ञान हो चुका था। ऐसा भी कहते हैं कि वे भंडार सहित रामत स्थान में व्यवस्था संचालन और समान्य निराकरण के कार्य भी संपन्न करते थे। वे अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और संगठित नेतृत्व के गुणों से युक्त थे। वे रामत स्थानों पर युवाओं को संघर्ष हेतु पहल करने का आह्वान करते हुए उन्हें संगठित करते थे। तथा खड़ैत कि प्रशिक्षण देते थे। क्योंकि गुरु बालकदास जी के अनुसार जो स्वयं कि रक्षा नहीं कर सकता।वह दुसरो कि रक्षा नहीं कर सकता। वे कहते थे कि पशु भी अपने आत्मरक्षा के लिए विरोध करते हैं फिर तुम तो मनुष्य हो। इसलिए अपने गरिमा और अधिकार के लिए संघर्ष करो।राजा गुरु बालकदास जी का जन्म कब हुआ यह निश्चित नहीं कह सकते। लेकिन यह अवश्य है कि सन् 1795 के पुर्व गुरु घासीदास के सभी संतति हो चुके थे। पं गिरवर प्रसाद डहरिया जी जिसकी हस्तलिखित कापी जो (लगभग सन्1990 की होगी) के अनुसार गुरु बालकदास
की प्रचलित जन्म तारीख भाद्र पद कृष्ण अष्टमी सन् 1787 है।। कुछ सतनामी विद्वान उनकी जन्म तिथि 1790 अथवा 1805 भी स्वीकार करते हैं। राजमहंत नंकेशरदास टंडन के अनुसार उनकी जन्म तिथि भाद्रपद अष्टमी 8/8/1791 प्रकाशित है।
छत्तीसगढ़ में गुरु बालकदास जी के जन्म के अवसर पर गुरु घासीदास के द्वारा गिरौदपुरी में पहली बार जैतखाम स्थापित किया गया। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ में भादों अष्टमी के दिन पालों चढ़ाने का रिवाज भी था । जो कई गांवों में आज भी प्रचलित है।
दिये गये उपरोक्त जन्म सन् में
इसमें संभवतया सन् 1805 संदेहास्पद है क्योंकि जनश्रूति के अनुसार गुरु बालकदास जी को संगठन और सैनिक(खडैत) निर्माण के कुशलता के कारण तथा गुरु घासीदास के समाजिक सुधार के फलस्वरूप सन् 1820 में क्वांर अष्टमी के दिन राजा कि पदवी दी गई थी। जिसके फलस्वरूप दशहरा क्वार दशमी के दिन गुरु दर्शन परंपरा की शुरुआत हुई। राजा गुरु बालकदास जी को सोने के बनी मुठ वाले तलवार और तबल भाला ,बरछी सहित राजसी वस्त्र और मानद भेंट किया गया था। तथा वे हाथी घोड़ा ऊंट के सहित सैनिक भी रखते थे। इस आधार पर सन् 1805 में उनकी आयू 15 वर्ष ठहरतीं है जो उपयुक्त नहीं बैठती।
इसी प्रकार गुरु घासीदास के सतनाम प्राप्ति के संबंध में भी भ्रम फैलाया जाता है कि उन्हें भीमाकोरे गांव से सतनाम की प्रेरणा मिली तथा दुसरा यह भी प्रचारित करते हैं कि- गुरु घासीदास सन् 1817 में छाता पहाड़ होते हुए नागपुर गये । अंग्रेज विलियम कैरी के साथ बैठक किया ,फिर उनके कहने पर सतनामी आंदोलन 1820 के शुरुआत हुई। जो एकदम ग़लत और थोथी बात है। जिस पत्र subject file of the Rodger Headlund (14 November 1986) का हवाला देकर ये परबुधिये लोग प्रचारित करते हैं उसमें लिखा है कि:-
In 1817 he ( Ghasidas) went on a foot piligramage to the river Ganga , probably to Calcutta_______
He heard William carry or Some other missionary. He came back with striking message,
यह पत्र 17 नवंबर 1986 को भेजा गया था।
इसमें आप स्वयं देखिए :-
1 यह पत्र 1986 का है।
2इसमे सन् 1817 में मिशनरियों को सुना लिखा है।
3 विलियम कैरी या अन्य मिशनरी लिखा है।
4स्थान कलकत्ता गया कहा है।
अब सोचने वाली बात है कि मिशनरियों के पादरी सतनाम का उपदेश उन्हें क्यों करेंगे। और नागपुर जाना था तो कलकत्ता क्यों जायेंगे?
जबकि (1) जनश्रूति अनुसार और ट्राइब्स एंड कास्ट और रायपुर गजेटियर 1909 के अनुसार गुरु घासीदास पुरी के यात्रा को सारंगढ़ से सतनाम कहते हुए छोड़कर आया था। और गिरौदपुरी के जंगल में तपस्या करते हुए ध्यानस्थ हो गया।
2 सेंट्रल प्रोविंस1867,1870, बिलासपुर 1868 और जनश्रूति व सतनामी कवि लेखक के अनुसार बड़े पुत्र अमरदास जी के वियोग और सफुरा माता के समाधिस्थ होने के कारण 1791 या 1795 को वे गिरौदपुरी के जंगल में जाकर ध्यान-साधना करने लगे तत्पश्चात गुरु घासीदास को सतनाम की प्रप्ति हुई।
गुरु घासीदास, तथा गुरु अमरदास और गुरु बालकदास जी के संयुक्त सतनाम धर्म प्रचार लगभग 1850 तक चला फिर राजा गुरु बालकदास जी के नेतृत्व में जब सतनामी समाज संगठित और प्रशिक्षित हो गया तब 1850 में राजा गुरु बालकदास जी के नेतृत्व में मराठी पेशवाही सामंती व्यवस्था का सशस्त्र विरोध हुआ और सतनामी आंदोलन का आगाज हुआ। जिसके अंतर्गत किसानों और भुमि हीनों ने अपने छिने हुए संपत्ति और भुमि को प्राप्त किया जिसमें सैकड़ों किसानों ने मालगुजारों के हैसियत को प्राप्त किया। जिसमें सतनामी समाज के 362 मालगुजार स्थापित हुए। इसी दौरान राजा गुरु बालकदास जी ने भुमि हीनों के लिए भुमि स्वामित्व के अधिकार के मांग किए। जिसका मसौदा 1859 मालिक मकबुजा एक्ट एक्स के रूप में तैयार हो गया था। जिसके अन्तर्गत ऐसे किसान जिन्होंने लगातार बारह वर्षों से जोत बनाए हुए कास्तकारी कर रहे थे उन्हें उस जोत का मालिक घोषित किया जाता। इसलिए सामंती और पुरोहितों ने राजा गुरु बालकदास जी को षड्यंत्र के तहत मार्च- सन् 1860 में रात्रि के समय भोजन करते समय हमला करके मार डाला जिसमें उनके सहयोगी सरहा जोधाई सहित बहुत से सतनामी खडैत मारें ग ए। सतनामी सपूतों ने वीरगति को प्राप्त किया। इसका एक और मुल कारण था। राजा गुरु बालकदास जी के स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद वीर नारायण सिंह को सहयोग करना। जिसके कारण से अंग्रेजों ने गुरु बालकदास को भविष्य में ब्रिटिश शासन के लिए खतरा समझा तथा मिशनरियों के उद्देश्य पुर्ति के लिए ईसाई धर्म के प्रचार में बाधा माना। क्योंकि तब लाखों लोगों ने सतनाम धर्म को अपनाया । जिसके कारण से ब्रिटिश अफसरों ने उच्च जातिवर्ग के मन में राजा गुरु बालकदास जी के लिए जातिगत और सम्मानगत विद्वेष का ज़हर घोला । उन्हें गुरु बालकदास जी का गरीबों, मजदूरों और किसानों के लिए संघर्ष करना अच्छा नहीं लगा। षड्यंत्रकारियों का साथ देते हुए उन्हें सुरक्षा नहीं दिया गया। फलस्वरूप राजा गुरु बालकदास जी गरीबों और किसानों के हक़ अधिकार के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हो गए। तथा कभी सतनामी समाज और मानवता के हत्यारे खोजें नहीं गये।
He was traveling to the raipur on business, and remain for the night at the roadside resthouse,
Here a party of men , supposed to be Rajputs attaked and killed him, at the same time wounding the followers who accompanied him. This occurs 1860 and preprater where never discovered.
लेकिन राजा गुरु बालकदास जी की शहादत बेकार नहीं गयी। जिस साहस और शौर्य कि अग्नि को उन्होंने प्रज्वलित किया था। वह किसानों और सतनामी समाज के हृदय में जलता रहा। फलस्वरूप स्वतंत्रता आंदोलन में सतनामी समाज के सपूतों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और देश को स्वतंत्र कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुरु अगमदास जी छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन के मुख्य धूरी थे। उनके रायपुर निवास स्थान में स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानियों का आना-जाना लगा रहता था। वही आंदोलन कि रुप रेखा तैयार होती थी। जो संविधान निर्मात्री सभा के बरार प्रांत से सदस्य भी रहे। सन् 1924 में कानपुर के गौ कत्लखानों को नैनदास महिलागे सहित सैकड़ों सतनामी सपूतों ने कानपुर स्थित बुचडखाने को तोड़कर गौ हत्या बंद करवाये। राजा गुरु बालकदास जी के प्रेरणा से सतनामी समाज आज भी गौरव और अभिमान के साथ अन्याय और अत्याचार का विरोध करते आ रहे हैं। राजा गुरु बालकदास जी के साहस और शौर्य सतनामी सहित मानव समाज को संघर्ष के लिए प्रोत्साहित करता रहता है।ऐसे महान वीर सतनामी समाज के गौरव राजा गुरु बालकदास जी के जन्म दिवस पर उन्हें सादर नमन 🙏 प्रणाम।
🌹आप सभी को जन्माष्टमी के हार्दिक शुभकामनाएं 🌹 🙏
🏳️🏳️ सतनाम 🏳️🏳️
🖍️ नरेंद्र भारती
प्रणाम गुरुजी, आपने इतिहास के पन्नों से सतनामी समाज के इतिहास, तथ्यपरक बातें, गजेटियर, सेंट्रल प्रोविंस के साथ-साथ इतिहास के बिखरे हुए पन्नों को संचित कर जनसाधारण के सामने लाए। जिसके लिए सतनामी समाज के साथ साथ समस्त मानव आपका आभारी है। साथ साथ मैं छत्तीसगढ़ शासन से अनुरोध करता हूं कि आपको उचित सम्मान दिया जाए।
ReplyDeleteलेख नरेंद्र भारती जी का है।
ReplyDeleteमैंने बस संकलित किया है।