गुरु घासीदास जी के द्वारा भारतीय संस्कृति और सभ्यता की रक्षा और सतनाम धर्म का प्रचार


आदरणीय मित्रों  गुरु घासीदास भारत के सबसे महान संतों और जन आंदोलन कारी समाज सुधारकों में से एक है। उनका कृतित्व और व्यक्तित्व किसी भी प्रमाण के मोहताज नहीं है। गुरु घासीदास ने अपने संदेश -उपदेश छत्तीसगढ़ के छत्तीसगढ़िया बोली भाखा में दिया। केवल इसलिए गुरु घासीदास को अन्य संतों महापुरुषों के तुलना में ज्यादा महत्व और आदर नहीं दिया जाता है। गुरु घासीदास को अनौपचारिक रूप से छोटे सिद्ध करने का एक कारण  यह भी है कि उन्होंने अपने समय में व्याप्त ब्राम्हणी कुरितियो का विरोध किया और समाजिक सुधार के कार्य किया। जिसके कारण लाखों लोगों ने हिन्दू धर्म को त्यागकर सतनाम धर्म को स्वीकार कर लिया।
Under the influence of Ghasidas a considerable number of men of other castes became Satnami,
          Must have taken time to time , otherwise it is hard to account. (रायपुर गजेटियर 1869)

गुरु घासीदास के द्वारा छत्तीसगढ़ में सतनाम पंथ के पुनरुत्थान और स्थापना को तात्कालिक समय के धर्माचार्य ने हिन्दू विरोधी गतिविधियों के रूप में देखा। जबकि उनके पुर्व भी गुरु नानक जी, कबीरदास जी, रविदास जी, जगजीवन दास,
जी ,उधादासजी, ने समाज सुधार के लिए धार्मिक कर्मकांड और आडंबरों और कुरितियां का विरोध किया था। इसलिए गुरु घासीदास ने ऐसा कोई विरोधात्मक कार्य नहीं किया था। जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के हित में न हो।
लेकिन चुंकि गुरु घासीदास ने किसी उच्च वर्ग के मार्गदर्शन के बिना  वंशानुगत संस्कार और आत्मप्रेरणा से सतनाम का ध्यान साधना करते हुए सतनाम धर्म का उपदेश दिया। इसलिए उन्हें एक धर्म विरोधी के रूप में चित्रित किया गया। उसके महान समाज सुधार के कार्य को लिखा ही नहीं गया। गुरु घासीदास को सतनाम पंथ के उपदेशक बनाकर केवल सतनामी समाज तक सीमित कर दिया गया। जबकि महापुरुषों और संतों के कार्य किसी समुदाय अथवा जाति विशेष के लिए नहीं होता। उनका कार्य संपुर्ण मानव समाज के लिए होता है। पर दुर्भाग्य कि उन्हें केवल एक समुदाय का हितैषी घोषित कर दिया गया।
He had been empowered to deliver a special message to his own community, (लैंड रेवेन्यू सेटलमेंटआफ बिलासपुर) और जितने भी गजेटियर और दस्तावेज लिखा गया सभी में गुरु घासीदास को किसी जाति अथवा समुदाय विशेष के उपदेशक के रूप में चित्रित किया गया है।  ताकि गुरु घासीदास के कार्य और उपदेश को एक वर्ग समुदाय के लोगों के लिए सिद्ध किया जा सके। आज उन पक्षपाती लेखकों विचारकों के परिणामस्वरूप ही गुरु घासीदास को जिन्होंने समस्त मानव जाति के लोगों के लिए कार्य किया। जिन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता और सनातन विचार की रक्षा किया । उसे केवल सतनामी समाज के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। 

गुरु घासीदास के समाजिक सुधार के कार्यों का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं किया गया है गजेटियर और ब्रिटिश दस्तावेज में। और आज भी लेखक और शोधकर्ता उनके समाजिक सुधार के कार्यों को नहीं लिखते हैं।
यह भारतीय समाज और संस्कृति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।
और लोग आज भी गुरु घासीदास से भेदभाव मानते हैं। उनके उपदेश संदेश को किसी जाति विशेष के लिए घोषित किया जाता रहा है। जो आज भी जारी है। 
जो लोग गुरु घासीदास को सनातन धर्म संस्कृति विरोधी मानते थे अथवा आज भी मानते हैं उनसे मेरा प्रश्न है:-
1 क्या गुरु घासीदास विदेशी थे?
2 क्या गुरु घासीदास ने किसी धर्म का विरोध किया है?
3 क्या गुरु घासीदास ध्यान साधना और योग विदेश से सीखकर आये थे?
4 क्या गुरु घासीदास ने ईसाई अथवा मुसलमान धर्म का प्रचार-प्रसार किया था?
5 क्या गुरु घासीदास ने किसी विदेशी अथवा भारतीय संस्कृति के विरोधी किसी व्यक्ति को गुरु बनाया था?
6 क्या गुरु घासीदास ने किसी जाति अथवा धर्म की निंदा कीहै?
7 क्या गुरु घासीदास ने भारत के संभ्रांत वर्ग का निंदा कियाथा?
 8 क्या भारत में केवल गुरु घासीदास ने ही जाति प्रथा का विरोध किया है?
9 क्या गुरु घासीदास के पुर्व कभी किसी ने मुरति पुजा का विरोध नहीं किया था?
10 क्या गुरु घासीदास ने सतनाम धर्म की पुनरुत्थान  करने के लिए सतनाम पंथ की नींव डाली वह ग़लत और धर्म विरोधी  है?
11 क्या गुरु घासीदास के पुर्व भारत में किसी भारतीय ने सनातन धर्म के अलावा किसी धर्म,पंथ, मत की नींव नहीं डालीहै?
12 क्या गुरु घासीदास के आलावा किसी ने कभी वर्ण, जाति व्यवस्था का कभी विरोध नहीं किया था?
13 क्या गुरु घासीदास जी का महिलाओं के समानता और अधिकार के लिए आवाज़ उठाना ग़लत है?
15 क्या टोनही प्रथा जिसमें महिलाओं को प्रताड़ित और अपमानित किया जाता था उसका गुरु घासीदास के द्वारा विरोध करना ग़लत था?
16 क्या गुरु घासीदास के द्वारा व्यभिचार  का विरोध करना ग़लत था ?
17 क्या सति प्रथा, टोनही प्रथा, बहु-विवाह प्रथा, बलकैना विवाह,  कन्या हत्या का 
गुरु घासीदास के द्वारा विरोध करना ग़लत था?
18 क्या गुरु घासीदास के द्वारा पुंजिवादी व्यवस्था  का विरोध करना और किसानों के हक और अधिकार एवं स्वामित्व के लिए लड़ना ग़लत था ?
19 क्या गुरु घासीदास का बलि प्रथा को बंद कराना और लोगों मांसाहार करने से मना करना धर्म विरोधी कार्य है ?
20 क्या गुरु घासीदास के द्वारा ईसाई मिशनरियों के ईसाई धर्म प्रचार को रोकना और छत्तीसगढ़ के जनता को सतनाम पंथ कि शिक्षा देना ग़लत है?
21 क्या गुरु घासीदास का सत्य और अहिंसा का सतनाम उपदेश करना धर्म विरोधी है?
22 क्या गुरु घासीदास और बालकदास के नेतृत्व में सतनाम आंदोलन के प्रभाव से ग़रीब किसान और मजदूरों को उनका हक स्वाभिमान, संपत्ति दिलाना  धर्म विरोधी कार्य था ?
24 क्या गुरु घासीदास के द्वारा  मंदिर के स्थान पर लोगों को सार्वजनिक तलाब, कुआं, सड़क, नहर, झिरीया, बनाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करना और आग्रह करना और सार्वजनिक व्यवस्था का आरंभ करना धर्म विरोधी था?
25 क्या गुरु घासीदास के द्वारा सामुहिक भोज का भंडारा प्रथा के रूप में आयोजित करना और भुखे को भोजन कराना और विभिन्न जाति धर्म के लोगों को एक साथ बैठाकर खाना  खिलाना धर्म विरोधी था?

आदरणीय भाईयों और बहनों कोई भी संत महापुरुष किसी भी धर्म का विरोध कभी नहीं करते । बल्कि मानव समाज में व्याप्त कुरितियों और बुराईयों का विरोध करते हैं।  जो ईश्वरीय कार्य है। क्योंकि सभी धर्मों में मानवता की रक्षा करना और सत्य के स्थापना का उपदेश है।
यही कार्य भारतभूमि के छत्तीसगढ़ में जन्मे गुरु घासीदास ने किया था । जिसका मानवता परक ज्ञान और उपदेश छत्तीसगढ़ सहित, और अन्य राज्यों तक पहुंच गया था। 
लेकिन तात्कालिक समय के धर्माचार्य ने और सामंतवादी व्यवस्था ने  गुरु घासीदास को भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म का विरोधी समझा और उनका दुष्प्रचार किया। जिस महापुरुष ने अपने संघर्षों उपदेशों से जातिप्रथा का विनाश किया उसे ही एक जाति विशेष से जोड़कर बताया और लिखाया गया।
क्योंकि जाति प्रथा का समर्थन और संरक्षण करने वाले लोग नहीं चाहते थे कि जाति व्यवस्था समाप्त हो। वे नहीं चाहते थे कि गुरु घासीदास संत अथवा महापुरुष के रूप से प्रतिष्ठित और स्थापित हो। लेकिन मैं आज आपको जनश्रूति अनुसार सुना  हुआ गुरु घासीदास के एक महान कार्य के बारे में और उनके खिलाफ किये गए षड्यंत्र के बारे में बताऊंगा।

 तात्कालिक समय में जब गुरु घासीदास ने 1795 में सतनाम पंथ कि नींव रखी तब छत्तीसगढ़ में मराठी शासन( सुबेदारी) लागू था । जो 1818 में अंग्रेजों के द्वारा मराठों को परास्त करने के साथ दोनों के बीच अनुबंध के तहत अंग्रेजी का शासन का सुत्रधार हुआ। सन् 1858 में  अंग्रेजों को शासन का पुरा अधिकार प्राप्त हुआ और 1864 से सेंट्रल प्रोविंस के निर्माण का आरंभ हुआ। तब तक इष्ट इंडिया कंपनी  ब्रिटिश सरकार के अधीन काम आरंभ कर चुकी थी। और ब्रिटिश सरकार का सबसे प्रमुख उद्देश्य था भारत को उपनिवेश बनाने के साथ-साथ ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करना। उन्होंने अपने प्राप्त किये प्रान्तों के भीतर ईसाई धर्म के प्रचार और स्थापना के कार्य को सुनियोजित तरीके से किया।
It's our duty as a Christian nation , and it' is  a politic in us, as a ruler of India  to support our church to that country (पालिटिकल हिस्ट्री आफ इंडिया)
 भारतीय राजा आपस में युद्ध और सीमा विवाद में उलझे रहते थे। और भारतीय समाज जाति धर्म के मकड़जाल में उलझा रहता था। फलस्वरूप किसी ने अंग्रेजों के इस कुटनितिक षड्यंत्र के ओर ध्यान नहीं दिया।
लेकिन अंग्रेज के आफिसर इस बातों को जानते थे।
The local government, aware of the progress of the filling,
सन् 1804 में अंग्रेजों और मिशनरियों द्वारा  फोर्ट विलियम कालेज में एक मसौदा तैयार किया गया। जिसके अन्तर्गत भारतीय रहवासियों के मुख्य धार्मिक मान्यताओं को हिन्दू राष्ट्र के भाषा में रुपांतरित किया गया और बड़ी चालाकी से उसमें ईसाई मत के विश्वास का मिश्रण किया गया ताकि लोग ईसाई धर्म के ओर आकर्षित हो सके।
और सेरमपुर ( कलकत्ता) में एक प्रेस की स्थापना किया गया। जहां हिन्दुस्तान के शाब्दिक भाषा में आलेख और पुस्तक तैयार किया गया। जो हिन्दूओ के धार्मिक भावनाओं से मेल खाती थी। क्योंकि ईसाई मिशनरियों का उपदेश और टारगेट हिन्दू समाज था।  Missonaries were almost exhusively  directed towards the class of Hindus,  who were free from that sprit of bigotry, 
उन्होंने हिन्दू धर्म और धार्मिक भावनाओं को समझने के लिए धार्मिक ग्रंथों और क्रियाकलापों का अध्ययन किया। और भारत के लोगों ने स्वयं को महान सिद्ध करते हुए भारतीय परंपरा से उन्हें अवगत करा दिया यह सोच कर कि यह हमारे महान धर्म से सीख रहा है। जबकि ऐसा कुछ नहीं था। उन्होंने हिन्दू धर्म का अध्ययन हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरितियों और समाजिक असंतोष को जानने के लिए किया था। ताकि उनके विरुद्ध मसौदे तैयार करके ईसाई धर्म को हिन्दू धर्म संस्कृति से श्रेष्ठ बनाकर और बताकर प्रस्तुत कर सके। और ऐसा ही हुआ और कतिपय आज भी हो रहा है। लोग आज भी हिन्दू धर्म और भारतीय संतों द्वारा उपदेशित पंथ मत का त्याग करके ईसाई धर्म को अपना रहे हैं। क्योंकि ईसाई मिशनरियां   ईसाई धर्म को बेहतर और नये कलेवर में प्रस्तुत करने में सफल रहे और आज भी हम जातिवाद और जाति गत दुर्भावना से मुक्त नहीं हो सके हैं।

यदि छत्तीसगढ़ में गुरु घासीदास ने सतनाम धर्म आंदोलन का सुत्र पात नहीं किया होता तो लाखों हजारों लोग जिन्होंने धार्मिक असंतोष और अन्याय और उत्पीड़न के विरोध में सतनाम धर्म को स्वीकार किया । वह सभी ईसाई धर्म स्वीकार करके ईसाई बन गये होते। जिस गुरु घासीदास ने लाखों लोगों को ईसाई धर्म परिवर्तन के प्रभाव से बचाया । भारतीय संस्कृति सभ्यता का प्रचार किया। योग और सात्विक मानवता परक धर्म दर्शन का उपदेश दिया। आज उन्हीं गुरु घासीदास को हिन्दू धर्म और संस्कृति का विरोधी मानना क्या हमारी पराजय नहीं है? क्या भारत में व्यक्ति को सम्मान  जाति देखकर दिया जाना  अनुचित नहीं है? जबकि कबीरदास जी ने कहा था- "जाति न पुछो साधु की पुछ लिजिए ज्ञान"  
आदरणीय साथियों सतनाम धर्म तो भारत की अपनी धर्म संस्कृति है । जिसका उपदेश नानक जी ने पंजाब प्रांत में। रामनंद और कबीरदास रविदास जगजीवन दास जी ने उत्तर  के  प्रदेश प्रांत में। और छत्तीसगढ़ में सतखोजन दास जी ने छत्तीसगढ़ में उनके पुर्व के समय में कर चुके थे। यह छत्तीसगढ़ के सतनामी समाज का दुर्भाग्य है कि गुरु घासीदास के पुर्व किसी ने छत्तीसगढ़ के सतनामी को अपने रचना में स्थान नहीं दिया। जबकि छत्तीसगढ़ में बौद्ध धर्म के पतन के बाद सतनामी समाज का उदय हुआ था। सतनामी समाज के प्राचीनता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे टेराकोटा और मातृकापुजन के वाहक है। जिसके बारे में रायपुर के एक पत्रिका में भी छपा था। छत्तीसगढ़ के सतनामी समाज आज भी विवाह के अवसर पर मायन पुजा करते हैं। जो आज छत्तीसगढ़ के विभिन्न जातियों के विवाह प्रथा में प्रचलित है।
इस प्रकार छत्तीसगढ़ के सतनामी समाज गुरु घासीदास के पुर्व से छत्तीसगढ़ में निवास करते आ रहे हैं। कतिपय कुछ विद्वानों के अनुसार सतनामी का नारनौल से प्रवासित बताया जाता है। यह भी सत्य है। परन्तु यह प्रवासन 1672 में हुआ था। जबकि सतनामी समाज छत्तीसगढ़ में उसके पुर्व से  मुलनिवासी के रूप में रहते आ रहे हैं। the Satnami lay claim to a very antiquity among the inhabitantions,  तब सतनामी का मतलब कोई जाति नहीं था बल्कि ऐसे व्यक्तियों के संगठित समुदाय से था। जो किसी भी जाति धर्म और  धर्मोंपदेशित  क्रियाकलापों को नहीं मानते थे ।

सन् 1812 में ब्रिटिश शासन द्वारा पारित किये गये विधायिका के अधिनियम के प्रावधानों के तहत भारत में मिशनरियों को प्रोत्साहित किया जाने लगा और  
बहुत सी सोसायटी की स्थापना किया गया जिसके माध्यम से ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार किया जाता था। इसका प्रमुख कार्य था जातिवाद को बढ़ावा देना, और हिन्दू  समाज के दुष्प्रथाओ का प्रचार करना  और  उसे ईसाई धर्म में निषिद्ध बताना और लोगों को ईसाई धर्म का उपदेश करना तथा प्रलोभन देना ।
गुरु घासीदास ने अंग्रेजी सरकार के मंशा को भांप लिया था क्योंकि जब वे रामत के दौरान जनता के बीच पहुंचते तब  दबे स्वर में उन्हें भारतीय समाज में हिन्दू धर्म के प्रति असंतोष  और ईसाई धर्म के प्रति आकर्षण का आभास होता था। शायद इसीलिए गुरु घासीदास ने 1795 से 1799 तक  समीपवर्ती गांव के भ्रमण के पश्चात प्राप्त अनुभवों के आधार पर सन् 1799 से   छत्तीसगढ़ में रावटी प्रथा का शुभारंभ किया। और संपुर्ण छत्तीसगढ़ में  रावटी लगाकर लोगों को सतनाम धर्म और भारतीय संस्कृति और सभ्यता से जोड़ा । फलस्वरूप लाखों लोगों ने सतनाम धर्म को स्वीकार किया और इस प्रकार गुरु घासीदास ने ईसाई धर्म को फैलने से रोका।
गुरु घासीदास के विरुद्ध अंग्रेजों और दमनकारी सामंती ने क्या क्या षड्यंत्र चलाया उसके बारे में मैं आगामी लेख में बताऊंगा। लेख के संक्षिपतता के उद्देश्य से यही पर लेखन को विराम दे रहा हूं।
 🙏 सादर धन्यवाद
🏳️ सतनाम 🏳️ जय भारत 🏳️
🖍️ नरेंद्र भारती

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