पेप्टिक अल्सर
आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर में अग्नि मूल है। जब तक शरीर में अग्नि संतुलित रहती है, तब तक स्वास्थ्य का अनुवर्तन होता रहता है। इसलिए शरीर में प्राण और स्वास्थ्य अग्निमूलक हैं। शरीर में मंदाग्नि रहने से कई उदर रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक दबाव और तनाव भरी जिंदगी जीने वालों के शारीरिक विकारों में ग्रहणी और पाचन संस्थान के रोग ज्यादातर दिखाई देते हैं, जिनमें अल्सर सबसे अधिक पायी जाने वाली व्याधि है। मानव शरीर में आमाशय और ग्रहणी आहार नाल के सबसे महत्वपूर्ण भाग हैं। आमाशय आहार नाल का सबसे चैड़ा भाग है, जो अन्न नालिका के अंत से ले कर छोटी आंत के प्रारंभ के मध्य स्थित रहता है। आमाशय का कार्य है आहार को ग्रहण करना, अपने पाचक रसों को उसमें मिलाना, अपनी पेशियों द्वारा भोजन का मंथन करना और उसे आगे की तरफ धकेल कर ग्रहणी में भेजना। ग्रहणी छोटी आंत का सबसे चैड़ा और प्रारंभिक भाग है, जिसका आकार ‘सी’ अक्षर के समान है। जब अमाशय की भित्ति में घाव (व्रण) बन जाता है, तो उसे ‘आमाशय व्रण’ कहा जाता है। जब आमाशय और ग्रहणी दोनों में ही एक साथ घाव बन जातें हैं, तो उसे ‘गैस्ट्रोड्यूडेनल अल्सर’ कहा जाता है और जब यह घाव या व्रण ग्रहणी की भित्ति में बनता है, तो उसे ड्यूडेनल अल्सर के नाम से जाना जाता है। यद्यपि इन तीनों प्रकार के व्रणों के रचनात्मक रूप में कई प्रकार की विविधता है, पर इन तीनों के कारण और उपचार लगभग एक जैसे ही हैं। अतः इन्हें समान्यतः एक ही नाम ‘पेप्टिक अल्सर’- से संबोधित कर दिया जाता है । पेप्टिक अल्सर के वास्तविक कारण का अभी तक सही पता नहीं चल पाया है। फिर भी रोग उत्पत्ति में मुख्य भूमिका आमाशय अम्ल की सक्रियता पर निर्भर करती है। आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की अधिकता के कारण, अथवा आमाशय और ग्रहणी की आंतरिक श्लेष्मिक कला की इस अम्ल के प्रति प्रतिरोध शक्ति कम पड़ जाने के कारण आमाशय रस का अम्ल इस श्लेष्मिक कला को पचाने लग जाता है, जिससे उस स्थान पर घाव (व्रण) उत्पन्न हो जाते हैं। यह तो सर्वविदित है कि तीव्र अम्ल किसी भी प्रकार के मांस को गला सकता है, स्वस्थ मानव के शरीर में आमाशय कोशिकाओं द्वारा उत्पन्न पाचक रस और अम्ल से श्लेष्मिक कला की रक्षा करता है। इस पाचक रस में ऐसे प्रजिजीव भी मौजूद रहते हैं, जो अम्ल की क्रिया से बचाते हैं। किसी कारण से इनकी न्यूनता होने से श्लेष्मिक कला की प्रतिरोध शक्ति घटने तथा रक्त संचार के पर्याप्त न रहने से उन स्थानों की श्लेष्मिक कोशिकाओं का पाचन संभव हो पाता है, जिससे वहां घाव बन जाते हैं। ‘पेप्टिक अल्सर’ की उत्पत्ति का सीधा सा कारण आमाशय रस के पेप्टिक और हाइड्रोक्लोरिक अम्ल द्वारा आमाशय की श्लेष्मिक कला का पच जाना ही होता है, क्योंकि अल्सर की उत्पत्ति के लिए अम्ल और पेप्टिक की मौजूदगी आवश्यक होती है। रोग का उपचार: पेप्टिक अल्सर के उपचार के लिए औषधियों से अधिक आवश्यक है परहेज। अपनी बुरी आदतों और चीजों को जीवन भर के लिए छोड़ना पड़ता है। धूम्रपान, शराब और अन्य प्रकार के नशीले पदार्थों को त्याग कर संतुलित आहार पर ही रहना पड़ेगा। एस्प्रिन और अन्य कई शोथ निवारक औषधियों को भी छोड़ना पड़ता है। आयुर्वेद में कई ऐसी औषधियां हैं, जो पेप्टिक अल्सर में शीघ्र लाभ करती हैंः यहां तक कि बहुत जल्द ही रोग को समूल नष्ट भी कर डालती हैं, जैसे आंवला। आंवला अपने विशेष रसायन से आमाशय की श्लेष्मिक कला पर म्यूसिन और एल्यूमिन को मिला कर एक परत सी बना देता है, जिससे श्लेष्मिक कला का कोमल भाग जठर रस और अम्ल के प्रभाव से बचने लग जाता है।
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