दान

प्रत्येक प्रोफेशन में इनकम की व्यवस्था करना पड़ता है। तभी वह व्यवस्था युगो युगो तक चलता है। हमारे सतनामी समाज में धार्मिक कृत्य करने वालों के लिए इनकम की व्यवस्था नहीं है। उल्टा दान देने वाला और लेने वाले को ही पाप बोल दिया गया है। जबकि दूसरे धर्मों में दान का विधान बनाया गया है।  जिसके कारण उनके धर्म संगठित हैं और फल फूल रहे हैं। दूसरी तरफ हमारे धर्म से लोग पलायन कर रहे हैं। 
प्रत्येक प्रोफेशन में उच्च पद है तो निम्न पद भी है जैसे को डाक्टरी विभाग को लेते हैं । सर्जन और एमडी हैं तो वही झोलाछाप डॉक्टर भी है। कंपाउंडर हैं तो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता भी है। सभी की अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार पदभार संभाले हुए। ऐसे ही धार्मिक क्षेत्र में भी है। 
  यदि धर्म की ओर आगे बढ़ेंगे तो दान की प्रवृत्ति को बढ़ाना पड़ेगा। ताकि उस सिस्टम को चलाने के लिए वह खुद ही अपने लिए आर्थिक उपार्जन कर सकें।
 जैसे कि सामाजिक सेवा का कार्य है। यह क्षेत्र हमारे समाज में दान के पैसे से चलता है। परंतु दान के पैसे का बंदरबांट होने की वजह से बहुत से लोग सामाजिक संगठनों में भी दान नहीं करते।
 दरसल हमारा समाज के सामाजिक संगठन जो परिवर्तन लाना चाहते हैं वह आज भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। यहां तो संगठन प्रमुख वही बन सकते हैं जो अपने पॉकेट से पैसा लगा सके। सामाजिक परिवर्तन तभी आता है जब क्रिएटिव वर्क होता है। और क्रिएटिव वर्क के लिए चैरिटेबल संस्था की आवश्यकता होता है। चैरिटेबल संस्था अपने लिए धन का जुगाड़ कर लेता है। वह दान के भरोसे पर निर्भर नहीं रहता। 
 और वर्तमान में तो दान के पैसे से इनकम प्राप्त करने का, इनकम टैक्स में छूट का समय चल रहा है। अभी इन चीजों से हम बहुत दूर हैं।
अभी हम किसी भी चीज के बारे में कुछ बयान जारी करते हैं तो उसके एक पक्ष को ही देखते हैं। जबकि यदि समाजिक प्रमुख व्यक्ति कुछ बयान जारी करता है तो उसके लाभ हानि के साथ साथ बहुत सारे पक्षों को भी देखना पड़ता है।
 दरअसल बौद्धिक विकास के हम प्रथम चरण में हैं। जैसे जैसे हमारा बौद्धिक विकास होते जाएगा वैसे वैसे हमारे शब्दों का चयन और सोच में परिवर्तन आता जाएगा। या यूं कह सकते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होता है।
जैसे कि वैश्य समाज के लोग बहुत ज्यादा दान करते हैं। 
 और वर्तमान युग में तो चाहे राजनीति हो, चाहे धार्मिक कार्य, चाहे चैरिटेबल कार्य यही लोग प्रमुखता से आगे आ रहे हैं। क्योंकि उनके पास धन है। बड़े-बड़े उद्योगपति यही लोग हैं। 
 जहां तक धार्मिक मंदिरों की बात है। तो इनको प्रत्येक मंदिर से इनकम नहीं होता। परंतु फिर भी प्रमुख मंदिर के नीचे कम से कम हजार डेढ़ हजार मंदिर होते हैं। जिनकी रखरखाव और वह कार्य करने वाले पुजारियों का पेमेंट मुख्य  मंदिर कमेटी वहन करता है।
 जबकि दूसरी तरफ हम अपने धार्मिक स्थलों के उन्नयन के लिए रखरखाव के लिए सरकार पर निर्भर है। हम अपना तो कुछ बना पा  नहीं रहे। लेकिन दूसरों को बिगाड़ने के लिए नीति बना रहे। दरसल उन नीतियों से संगठित धर्म को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क पड़ेगा तो हमारे ही समाज को हम अपने ही धार्मिक स्थलों पर दान देना उचित नहीं समझेंगे। और यह हो भी रहा है। हमारे धार्मिक स्थल पैसों की कमी से जूझ रहे हैं। इसके बावजूद भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो धार्मिक स्थल की कमाई का ब्यौरा मांगते रहते है।
दूसरी तरफ हमारे सामाजिक संगठन तो चाहते हैं कि केंद्र से हम एक शब्द बोले और वह ग्रामीण स्तर तक लागू हो। परंतु क्या इतने से ही लागू होगा केंद्रीय स्तर के पदाधिकारियों को ग्रामीण लेबल में भी तो कार्य करना होगा। या कुछ व्यवस्था बनाना पड़ेगा। यदि ग्रामीण व्यक्ति ₹10 देता है तो उस ग्रामीण टीम को भी कम से कम आपको ₹6 तो लौटाना ही होगा।
 अतः हमारा सफर अभी बहुत लंबा है।

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